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गोदना पेंटिंग के जनक - शिवन पासवान
गोदना पेंटिंग के जनक – शिवन पासवान
गोदना पेंटिंग के जनक – शिवन पासवान
गोदना पेंटिंग में मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग को एक नया विस्तार दिया है और इस शैली के जनक के रूप में लहेरियागंज (मधुबनी) के शिवन पासवान का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है | 04 मार्च, 1956 को पिता रामस्वरुप पासवान और माता कुसुमा देवी के परिवार में इनका जन्म हुआ था |

उच्च जाति के कलाकारों का वर्चस्व तोड़ा
जाति व्यवस्था भारतीय समाज की कड़वी सच्चाई है | ऊंच-नीच का श्रेणी-विभाजन करके यह सदियों से करोड़ों-करोड़ लोगों को अपमानित और उत्पीड़ित करती आई है | सदियों से चली आ रही इस भेदभावपूर्ण व्यवस्था के विरोध में साहित्य और कला-संस्कृति के क्षेत्र में समय-समय पर आवाज़ें उठती रही है | साहित्य के क्षेत्र में जाति-व्यवस्था के प्रतिरोध में उठा स्वर दलित साहित्य की अवधारणा के रूप में स्थापित हुआ है तो कला संस्कृति विशेषकर मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग के क्षेत्र में वह गोदना पेंटिंग के नाम से ख्यात है | गरीबी की फटेहाली में सामाजिक विभेद का दशं सहते-सहते लहेरियागंज, वार्ड नं. 1, मधुबनी से कला के दम पर हांग-कांग, इटली, फ्रांस तक में अपनी गोदना कला का परचम फहरा दिया गया है शिवन पासवान ने | जिस मिथिला चित्रकला में रामायण, महाभारत जैसे पौराणिक संदर्भों को ही दर्शाया जाता था , कायस्थ और ब्राह्मण कलाकारों का ही वर्चस्व था, उसे तोड़ा शिवन पासवान ने |
साहसी शिवन ने की एक नई परंपरा की शुरुआत

साहसी शिवन ने की एक नई परंपरा की शुरुआत
समाज के हाशिए पर पड़े दुसाध समुदाय के नायक थे राजा सलहेस-राज मैसोदा के राजा | दुसाध समुदाय की लोक स्मृति में उनकी छाप थी | उनको विषय बनाकर मिथिला पेंटिंग में एक नई परम्परा की शुरुआत करना एक बड़े ही साहस का काम था| | लेकिन शिवन घबराये नहीं | फिर क्या था -आगे का मैदान इनका था | पूरे परिवार को मिथिला कला में झोंक दिया | कीर्तिमान ऐसा बनाया कि राष्ट्रपति जैल सिंह के हाथों राष्ट्रीय पुरस्कार और बिहार सरकार से राज्य पुरस्कार पाकर सम्मानित हुए | मां कुसुमा देवी, बेटे कमलदेव पासवान तक को बिहार का राज्य पुरस्कार प्राप्त हुआ | पत्नी शांति देवी को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला| यह सामाजिक स्थिति का अतिक्रमण था |

जाति न पूछो कलाकार की
कला कोई भेद नहीं करती | जाति न पूछो साधु की | लौकिक मान्यता में यह क्षेपक जुड़ गया कि जाति ना पूछो कलाकार की | कलाकार के लिए सामाजिक स्थिति का कोई बंधन नहीं होता- वह कोई भी ऊँचाई छू सकता है | शिवन पासवान बिहार के ऐसे पहले कलाकार हैं जिन्होंने इसे प्रमाणित किया |
गरीबी का साम्राज्य था- किसी तरह मजदूरी कर परिवार की परवरिश होती थी | प्रतिकूल परिस्थिति के बावजूद बालक शिवन की जिद पर उसका नामांकन स्थानीय स्कूल में कराया गया | 10वीं तक की पढ़ाई इन्होंने वहाँ से की | तभी मिथिलांचल में भीषण अकाल पड़ा | लोग दाने-दाने को मोहताज हो गए | उस समय तक मिथिला पेंटिंग जमीन और दीवारों पर ही बनायी जाती थी और वह भी उच्च जाति की महिलाओं के द्वारा | ब्राह्मणों की भरनी और कायस्थों की कचनी शैली थी | अकाल के दौरान मिथिला कला से जुड़ी महिलाओं को रोजगार देने के उद्देश्य से सरकार ने उनके व्यावसायिक उपयोग के लिए प्रेरित करना शुरू किया | फलस्वरूप वह दीवारों से उतरकर कागज एवं कपड़े पर आ गई | शिवन के मन में भी इस चित्रकला को सीखने और इसके व्यावसायिक उपयोग का जुनून सवार हुआ | उस समय तक रामायण और महाभारत से जुड़े प्रसंगों को ही मिथिला पेंटिंग में चित्रित किया जाता था | शिवन लुक-छिपकर उनका अध्ययन करने लगे | इनकी माँ को भी उस पेंटिंग की थोड़ी-बहुत जानकारी थी | उनसे भी सीखने लगे | समस्या यह थी कि शिवन या उनकी माँ को पौराणिक आख्यानों की जानकारी नहीं थी | लेकिन सौंदर्य के प्रतीक के रूप में उनके समुदाय की महिलओं के शरीर पर गोदना गोदे जाने का प्रचलन था | गोदना को स्त्री में दर्द सहन करने की शक्ति के रूप में देखा जाता था | जीवन के उतार-चढ़ाव और सुख-दुख को वहन करने की क्षमता का विकास गोदना गुदवाने से ही माने जाने की मान्यता थी | सामान्यत: वनस्पति, पशु-पक्षी, सूर्य, चंद्र, पति का नाम या किसी घटना के स्मृति चिह्न को उनके शरीर पर अंकित किया जाता था | गोदना के उन डिजाइनों को शिवन कागज पर उतारने लगे | गेंदा, सूरजमुखी आदि फूलों के रंगों से पेंटिंग बनाना शुरू कर दिया | गोदना पेंटिंग की रेखाओं को छोटा कर चित्रकारिता शुरू की | इसने इन्हें बाजार की मांग में ला दिया | इनके प्रयोग का सिलसिला चलता रहा |

उनकी प्रेरणा एवं मार्गदर्शक
शिवन के सामने दुसाध समुदाय के नायक राजा सहलेस थे, जिनकी वीरता और जिनके वाहनों की तपस्या का कथानक उनके समुदाय की स्मृतियों में रचा-बसा था | बस क्या था- शिवन को चित्रों के लिए नया फलक मिल गया | उन्होंने राजा सहलेस के कथानक को अपने चित्रों में पिरोना शुरू कर दिया | राजा सलहेस के अलावा दीना-भदरी और महात्मा बुद्ध की गाथाओं और उपदेशों पर आधारित चित्र भी बनाने लगे | फिर इन्हें उपेंद्र महारथी का संरक्षण और सहयोग मिला | ये पटना आकर उपेन्द्र महारथी के मार्गदर्शन में चित्रों की रचना करने लगे | पटना इनका अस्थायी ठिकाना हो गया | यह मिथिला पेंटिंग की शैली का नया अध्याय बन गया | इनका नाम हो गया | एक नई कला-पटरी पर जीवन उतर गया | एक नया डिमांड क्रिएट हो गया | कायस्थों की कचनी और ब्राह्मणों की भरनी शैली से इतर गोदना शैली में जीव-जंतुओं, पेड़-पौधे, आस-पड़ोस के जीवन को तीर और सघन वृतों के माध्यम से उकेरना जारी रखा | शिवन पासवान द्वारा बनाई जाने वाली गोदना पेंटिंग की रेखाओं में एक अनगढ़पन होता है, जो उसे विशिष्ट बनाता है | गोदना पेंटिंग की इनकी शैली कायस्थों की कचनी और ब्राह्मणों की भरनी शैली से इतर है | लेकिन उन शैलियों से प्रेरित भी है |

कला के प्रति समर्पण
आज बाजार में शिवन पासवान के चित्र 500 से 10,000 रु में बिकते हैं | ये वॉल-पेंटिंग भी कर रहे हैं | वर्गफीट की दर से इनका भुगतान मिलता है | पूरा परिवार कलाकारिता को जीवन-मर्म बनाकर भिड़ा हुआ है | बेटी की शादी हो गई | वह भी पेंटिंग से जुड़कर नाम कमा रही है | इसे कहते हैं कला के प्रति समर्पण | राजा सहलेस के जीवन के कथानक के ऊपर इनके द्वारा बनाई गई पेंटिंग को पटना के बिहार संग्रहालय प्रदर्शित किया गया है | शिवन पासवान की साधारणता में असाधारणता है | कोई भेदभाव नहीं है | लोक को समर्पित हर चरित्र इनकी पेंटिंग का विषय है | इन्होंने मीराबाई और गोविंद की कला श्रृंखला बनाई है | धर्मराज युधिष्ठिर पर आधारित चरित्र का प्रकाश बिखेरने वाले पौराणिक पात्रों को भी केंद्र में ला रहे हैं | इनकी लंबी साधना कला के प्रति समर्पण की मिसाल है | लहेरियागंज को कला मंडप में बदल दिया है | प्रयोग की ऐसी जमीन विकसित की है कि देश-विदेश में जहाँ कहीं भी प्रदर्शनी लगती है, प्रयोग धार्मिता को मापदंड की तरह प्रदर्शित करने के लिए शिवन पासवान की खोज होती है |

“पैसा कमाऊ मशीन” बनते जा रहे हैं आज के युवा कलाकार
70 के दशक से राजा सहलेस और अन्य नायकों के जीवन वृत को अपने रंग से रंगते-रंगते शिवन आज लीजेंड बन गए हैं- एक जीवित दंतकथा | गोदना पेंटिंग के काम को इन्होंने इस दरजे तक पहुंचा दिया है कि राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उसकी एक विशिष्ट पहचान बन गई है | लेकिन शिवन पासवान आज भी परिस्थितियों से जूझ रहे हैं | कारण उस संक्रामक भयंकर रोग से जिसका नाम व्यापारिकता है और जो आज के कलाकारों को बेतरह ग्रस रहा है, उससे वे बिलकुल मुक्त है । वे कहते भी हैं की आज के युवा कलाकार व्यापारिकता के करण अपने कोमल भावों को तिलांजलि देकर “पैसा कमाऊ मशीन” बनते जा रहे हैं |

फुलवारी में बदल दी अपनी कलाकारी
अपनी कला के प्रति समर्पित शिवन पासवान वर्तमान में मधुबनी एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में गरीब एवं निर्धन परिवार के युवकों को मुफ्त में प्रशिक्षण दे रहे हैं | अब वे अपनी पेंटिंग में फूलों का रंग नहीं, 50-60 साल तक चटक दिखने वाले एक्रेलिक रंगों का उपयोग कर रहे हैं | इन्होंने अपनी कलाकारी को फुलवारी में बदल दिया है | इनकी प्रेरणा से गांव के गांव कला की फुलवारी में तब्दील होते जा रहे हैं | लेकिन फिर भी यह व्यक्ति तनिक भी अन्यथा दिखने का इच्छुक नहीं है | इन्हें अपने महत्व का पता नहीं है | शिवन पासवान को अपने संबंध में सिर्फ इतना ही पता है कि कोटि-कोटि कलाकारों के बीच वह भी एक कलाकार है |

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मधुबनी कला को समेटती, संवारती और समृद्ध करतीं गोदावरी को मिला पद्मश्री

मधुबनी कला को समेटती, संवारती और समृद्ध करतीं गोदावरी को मिला पद्मश्री

पांच दशक से इस कला को समेटती, संवारती और समृद्ध करतीं गोदावरी को अब जब पद्मश्री मिला है तो वे कह रही हैं कि मेरी तपस्या को मिला है फल…


गोदावरी दत्त का जन्म एक निम्न मध्यम वर्गीय कायस्थ परिवार में दरभंगा के लहेरियासराय में 1930 में हुआ था. इनका विवाह मधुबनी के रांटी गांव में उपेन्द्र दत्त से हुआ. जहां से उनकी पेंटिंग्स की यात्रा शुरू हुई. इससे पहले भी दत्त को दर्जनों राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं.मिथिला की शान हैं गोदावरी दत्त। 90 साल की उम्र है लेकिन जोश और समर्पण बरकरार है। मधुबनी कला को घर की दीवारों से निकाल कर अंतरराष्ट्रीय पटल पर लेकर आने में उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। पांच दशक से इस कला को समेटती, संवारती और समृद्ध करतीं गोदावरी को अब जब पद्मश्री मिला है तो वे कह रही हैं कि मेरी तपस्या को मिला है फल….

तपस्या का फल है पद्मश्री मिला

प्रशासन और मेरे प्रशंसक चाहते थे कि मुझे पद्मश्री मिले लेकिन काफी देर से मिला। लगता नहीं था कि मुझे मिलेगा लेकिन मेरे परिश्रम और तपस्या का फल है यह। मुझे लगता है कि हमारी कला पर मिथिला की महारानी सीता जी का वरदान है। महिलाओं की जिंदगी बदल गई है इस कला से। यह हमारी संस्कृति है, हर घर में होती है लेकिन घर में ही सिमट कर रह जाती थी। 1965 के बाद से यह बाहर आई है। 1970 के बाद ललित नारायण मिश्रा ने मधुबनी में हैंडीक्राफ्ट का ऑफिस खुलवाया और हम कलाकारों की मदद की। इसके बाद मैं देश-विदेश में अपने काम का प्रदर्शन कर मिथिला कला को आगे लेकर गई।

मेरी कला गुरु मेरी मां

मेरी मां सुभद्रा देवी बहुत बड़ी कलाकार थीं। जब मैं बहुत छोटी थी, पांच-छह साल की थी तो जब मां पेंटिंग करतीं तो मैं उसमें अपना हाथ चला देती थी। मां का डर लगता लेकिन मां कहतीं कि तुम हाथ चलाओ। कुछ बिगड़ेगा तो हम ठीक करेंगे। वे मुझे प्रोत्साहित करती रहीं। मेरी कला गुरु मेरी मां रही हैं। हमारे यहां ब्याह-शादी में यह कला अनिवार्य है। हर परिवार में लड़के-लड़की की शादी में इस कला का बहुत काम होता है। कागज पर इसे उकेरा जाता है। कोहबर, मंडप में बनाया जाता है। जरूरी है कि सबको इसका ज्ञान हो। बांस के डाला पर कागज लगाकर उस पर मिथिला पेंटिंग की जाती है और शादी का सामान रख कर दिया जाता है। मिट्टी की दीवारों पर इसे बनाया जाता है।

मिथिला आर्ट बिहार की संस्कृति

मिथिला आर्ट बिहार की संस्कृति है। बचपन में ही हर मां घर के काम के साथ-साथ अपने बच्चों को यह कला सिखाती थीं। हर गांव में गुरुजी सब बच्चों को दालान में पढ़ाते थे। मैं भी पढ़ती और मां से कला सीखती थी। मैंने ब्याह-शादी से लेकर, राम-सीता, राधा-कृष्ण तक काफी चित्र बनाए हैं। इसके अलावा मोर, सुआ बनाना शादी में शुभ माना जाता है। जब मैं इस कला में आगे बढऩे लगी तो कोई भी जो बनाने को कहता तो मैं बना देती थी। मैंने बहुत सारे चित्र बनाए हैं। चाहे कितनी ही देर लगे लेकिन मैं अच्छे और साफ-सुथरे चित्र बनाती हूं।

godawari dutta Painting

जापान में बना म्यूजियम

जापान में म्यूजियम के लिए मिथिला पेंटिंग बनाने मैं सात बार जापान गई। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि एक अकेली औरत जापान जाकर अपरिचित परिवार के साथ घुलमिल कर रह सकती है, मिथिला पेंटिंग्स बना सकती है। छह महीना वहां रहती और छह महीना यहां। हमारा एंबेसी से संबंध रहता था। उस म्यूजियम के डायरेक्टर टोकियो हासेगावा ने मुझे कहा कि आप यहां अपना काम करने आए हैं। आप जो बनाएंगे उसे हम मिथिला म्यूजियम में रखेंगे। हमने वहां लकड़ी के बोर्ड पर सीमेंट डालने के बाद बनी सरफेस पर काम किया। वे कहते कि यह मिथिला की वॉल पेंटिंग है। वहां मैंने अद्र्धनारीश्वर बनाए जिनके एक हाथ में डमरू था और एक हाथ में त्रिशूल। उसे बनाने के बाद डायरेक्टर ने डमरू बनाने की रिक्वेस्ट की। आठ फीट लंबे और सात फीट चौड़ाई के डमरू का डिजाइन मैंने बनाया। फिर त्रिशूल बनाया। वे मेरे डिजाइन को काफी पसंद करते।

हैंडपेंटिंग देख चौंक गए लोग

जापान के उस म्यूजियम के डायरेक्टर ने बताया था कि पहले मैं मिथिला से पेंटिंग लाकर बेचता था लेकिन जब मैंने प्रदर्शनी में लोगों को बताया कि इसे हाथ से बनाए गए रंगों द्वारा कलाकारों ने बनाया है तो उन्होंने विश्वास नहीं किया और कहा कि यह तो प्रिंट जैसा लगता है। तब कला के कद्रदानों ने कहा कि आप कलाकारों को लाकर हमें डेमो दिखाएं तब हम मानेंगे। इसलिए वे हमें जापान लेकर गए। जब सातवीं बार के बाद मैं वापस आने लगी तो उन्होंने डाइनिंग टेबल पर कहा कि हम भारत सरकार को बताएंगे कि आपके देश के मिथिला क्षेत्र से कलाकारों को लाकर जापान जैसे देश में मैंने मिथिला म्यूजियम खड़ा किया है आपके देश में एक भी म्यूजियम नहीं है जिसमें इन कलाकारों की पेंटिंग रखी गई हो। आने वाली पीढ़ी इनकी कला देखने के लिए जापान आएगी।

बिहार म्यूजियम में कोहबर की पेंटिंग

वहां से आने के बाद मैंने दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और मिथिला में सरकार के अधिकारियों से प्रार्थना की कि आप एक म्यूजियम बनाइए। काफी प्रयासों के बाद यह कामना पूरी हुई। हमारा सौभाग्य है कि बिहार म्यूजियम बना है। इसमें सब आर्ट रखे हैं। मेरी भी बारह बाई अठारह फीट साइज के कैनवास पर लाल रंग से कोहबर की पेंटिंग लगाई गई है, जिसे काफी पसंद किया गया है। अब तो सरकार मिथिला आर्ट पर काफी काम कर रही है। सरकार ने मधुबनी, दरभंगा और पटना जैसे स्टेशनों पर पेंटिंग लगाई हैं।

इस धरोहर को जिंदा जरूर रखें

12 देशों में अपनी कला की प्रदर्शनी लगा चुकी हूं। जर्मनी भी गई। तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने राष्ट्रीय पुरस्कार दिया। कई बार भारत सरकार की तरफ से ट्रेंनिंग दी। सीसीआरटी ने कई बार मुझे बुलाया। अभी भी बुलाते हैं लेकिन पैरों से चल नहीं सकती। हड्डी और नसें कमजोर हो गई हैं। उम्र बहुत हो गई है। 1930 का जन्म है मेरा। हमने अपने घर पर भी पेंटिंग बनाई है। हम कागज और दीवार पर लाइन पेंटिंग बनाते हैं। मैं हमेशा से महिलाओं को बोलती आई हूं कि आप इस कला से जुड़ें, किसी को देरी से भी समझ में आएगा लेकिन साहस न छोड़ें, एक दिन आप जरूर सफल होंगी। घर से किसी भी समय काम कर सकती हैं। बहुत व्यवसाय चल रहे हैं। मैं चाहती हूं कि लोग इस धरोहर को जिंदा जरूर रखें।

Pride of Mithila Painting
मिथिला पेंटिंग की शान हैं बउवा देवी (Baua Devi)

मिथिला पेंटिंग की शान हैं बउवा देवी

बउवा देवी (Baua Devi) का जन्म गुलाम भारत में मधुबनी के सिमरी (राजनगर) गांव में 25 दिसंबर, 1942 को हुआ था। मिथिला पेंटिंग के प्रति बउवा देवी (Baua Devi) का प्रेम और पागलपन इस कदर था की पांचवी कक्षा में ही पढाई छोड़कर इसी में रम गई। 12 साल की उम्र में शादी के बाद ये जितवारपुर आई। परंपरा से चित्रित मिथिला पेंटिंग दादी और माँ से होकर इनके खून में था। उस समय तक शादी एवं पर्व-त्योहारों के अवसर पर मिथिला पेंटिंग घर की दीवारों पर उकेरी जाती थी।

बिहार की संस्कृति मिथिला पेंटिंग

बिहार के मधुबनी (मिथिला) पेंटिंग की चर्चा आज राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है। यह कला एक बड़ा व्यवसाय बन चुकी है। इससे जुड़े कलाकार काफी पैसा भी कमा रहे हैं। मिथिला पेंटिंग को यदि उसकी वर्तमान सम्पन्नता की दृष्टि से देखें तो यह उल्लेखनीय सफलता है और सफलता से बड़ा कोई यश नहीं है। लेकिन उसका एक नकारात्मक पक्ष भी है। आज मिथिला पेंटिंग के कलात्मक प्रभाव को लेकर सवाल उठ रहे हैं। मिथिला पेंटिंग की अपनी विद्याएं और परम्पराएं रही हैं। लेकिन आज मिथिला पेंटिंग के कलाकार जो कुछ चित्रित कर रहे हैं, वह कितना पारम्परिक और प्रासंगिक है? कला समालोचक मिथिला पेंटिंग में अंधानुकरण करने की प्रवृत्ति को लेकर भी चिंतित हैं। सचमुच, मिथिला पेंटिंग में आज वैसे कलाकारों की संख्या घटती जा रही है, जो बाज़ार के हर तरह के दबावों के बावजूद अपनी कला के प्रति निश्छल,समर्पित एवं निष्ठा-वान हों। यहीं पर बउवा देवी जैसी कलाकारों का महत्व दृष्टिगोचर होता है।

बउवा देवी का साधारण व्यक्तित्व और उनकी उपलब्धियां

भोली-भाली सूरत और ग्रामीण वेशभूषा वाली बउवा देवी से जो भी व्यक्ति मिला है, वह उनके आचरण,कुशलता और व्यक्तित्व की परिपूर्णता से निश्चय ही प्रभावित हुआ है। यहीं गुण उनकी मिथिला पेंटिंग में भी परिलक्षित होते हैं। 75 वर्ष की उम्र में भी वे कल्पना के साथ सृजन करती हैं, न की अनुकरण। उनकी प्रत्येक कृति विषय को मुखरित कर देती है और मानवीय एवं प्रेरणास्पद होती है। सहसा विश्वास नहीं होता की यह महिला 70 के दशक में पेरिस हो आई है, फ्रांस के चर्चित कला समीक्षक बिको की पुस्तक “द वुमन पेंटर्स ऑफ़ मिथिला” की पात्र हैं। 11 बार इनकी जापान यात्रा हो चुकी है, जर्मनी, लंदन और मॉरीशस से हो आई हैं- अपनी कला साधना को लेकर। पेरिस, बार्सिलोना,स्पेन की कला प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया है। इन्हें 1986 का राष्ट्रीय पुरस्कार और 2017 में पद्मश्री मिल चुका है। केवल इसी बल पर कि इनकी पेंटिंग की शैली मिथिला पेंटिंग के अन्य कलाकारों से बिलकुल भिन्न है। अब बउवा देवी सूर्यग्रहण,अर्द्धनारीश्वर, अमेरिका पर 9 \11 के विस्फोटक हमलों की ज़मीन को कैनवास पर उतार रही हैं। मानवी दुनिया को विनाश की नाग-कन्यायों से कैसे बचाया जाए, निर्माण और विनाश के कालप्रसूत जीवन-चक्र को कैसे आगे की गति पुनरोत्पादन से जोड़ा जाए- चित्रित कर रही हैं। यह सब ‘कोहबर’ से निकली मिथिला पेंटिंग का व्यापक संक्रांति से मुक्ति का बड़ा फलक है। आज भी सक्रिय हैं बउवा देवी। वे मिथिला पेंटिंग के अंतिम पंचम स्वर की धात्री देवी-शक्ति हैं। भरनी शैली में बनाये इनकी ज्यामितीय आकृतियों में ढले रंगों में मानव का अंतिम संगीत फुट पड़ा है। इन्होने सिद्ध किया है की कला की अंतिम परिणीति मानवता के संगीत में ही होती है।मधुबनी से 6 -7 मील की दूरी पर स्थित जितवारपुर गांव आज मिथिला पेंटिंग का गढ़ बन चुका है। यहाँ कमोवेश हर घर में लोग यह पेंटिंग आज बना रहे हैं। इस तरह मिथिला के सामंती समाज में यह स्त्रियों की आज़ादी और सामाजिक न्याय के सशक्तिकरण, समरसता का नया रास्ता खुल गया है।

कैसे की बउवा देवी ने सफर की शुरुआत

1966-67 के अकाल के समय अखिल भारतीय हस्तकला बोर्ड की तरफ से डिज़ाइनर श्री भास्कर कुलकर्णी को इस भिती चित्र को व्यावसायिक आयाम देने हेतु भेजा गया था। भास्कर कुलकर्णी जितवारपुर आए और इन्होने महिलाओं को कागज़ पर चित्रों को उकेरने के लिए प्रेरित किया। इसे आमदनी का स्त्रोत बनाया। इसी क्रम में बउवा देवी ने भिती चित्रों को कागज़ पर बनाना शुरू कर दिया। आज इसी रूप में यह लोककला बउवा देवी के माध्यम से कागज़ और कपडे पर तो हैं ही- स्टेशनों,संग्रहालयों की दीवारों पर वृहदाकार रूप में भी आकर्षण का केंद्र हैं।

70 के दशक में भास्कर कुलकर्णी ने बउवा देवी से 14 रू में कागज़ की तीन पेंटिंग को ख़रीदा था, जिसमें शंकर, काली, दुर्गा को उकेरा गया था। बउवा देवी ने इसके बाद अन्य धार्मिक मिथकों, लोक-प्रतीकों को समाहित किया। अंत में उतर आई ‘नाग नागिन’ की पेंटिंग पर ,जो इनके व्यक्तित्व और कलाधर्मिता से जुड़ गया है।नाग देवता इनके कुल देवता भी थे। इनका नाम है ‘कालिका-विषहारा’। बासुकी नाग की कहानी को बउवा आज भी चित्रित करती हैं। लौकिक ज्ञान और विश्वास ही आज तक कला के उद्गम रहे हैं। बउवा देवी ने नाग को विश्व मंच पर प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। ये स्वयं आतंक से, व्यावसायिकता से, भौतिकता से मुक्ति के लिए विश्व की नाग-कन्या बन गई हैं, जिसका एक छोर विनाश के खात्मे का है तो दूसरा छोर नव सृजन का। इस तरह एक लोक गाथा बन गई हैं। इन्होंने वैयक्तिक और पौराणिक संदर्भों से विषय को उठाकर, उसे अपनी कला में मिलाकर अपने सम्पूर्ण जीवन को एक कला-दर्शन में बदल लिया है। उसके कई आयाम हैं, जो अनुसंधान का विषय है।

उनकी रचनाएँ

मिथिला कला इनके प्राणों में बसती है। इनकी अधिकांश रचनाएँ प्राकृतिक और लौकिक है- कल्पना का आधार उसमे शामिल है। कालिया मर्दन करते कृष्ण, राम-सीता विवाह यथार्थ और कल्पना का मेल है तो नाग नागिन कला की स्मृति, कहानियों के मर्म का उदघाटन। समय के साथ बदलाव की चित्रकारी है अमेरिका के वर्ल्ड सेन्टर पर हमले का चित्र। आसमान में विशालकाय नाग- फैलाये हुए फन- बेदनामयी नज़रें-दुख, अंधकार, रक्तपात। इस दुख-दर्द को बउवा जैसी कलाकार ही समझ सकती हैं। तभी तो बउवा देवी का जितवारपुर देश का एकमात्र ऐसा गाँव बन चुका है, जहाँ की तीन महिलाओं को पद्मश्री मिल चुका है। मिथिला पेंटिंग बउवा देवी का यशभाग लिख रही है।

दिल्ली की वो प्रदर्शनी

अतीत के पन्नों को पलटते हुए बउवा देवी कहती हैं- “जब मैं 15-16 वर्ष की थी, तभी सीता देवी,महासुंदरी देवी, जगदम्बा देवी और यमुना देवी के साथ दिल्ली स्थित प्रगति मैदान गई थी और एक माह तक वहाँ रहकर अपनी कला का प्रदर्शन किया था। उसके एवज में हमें प्रतिदिन 20 रूपया मानदेय के रूप में मिलता था, जो उस समय के हिसाब से बहुत ज़्यादा था। इसकी भनक चोरों को लग गई थी और एक रात वे चोरी की नीयत से हमारे कमरे में प्रवेश कर गए थे। लेकिन हो-हल्ला हो जाने के कारण उन्हें भागना पड़ा था। तब मैं बहुत डर गई थी और कई रात ठीक से नींद नहीं आई थी।”

उनकी व्यथाएँ

आजकल वे बेटे-बेटियों के साथ ज़्यादातर दिल्ली में रहती हैं लेकिन जितवारपुर गाँव इनसे छूटा नहीं है। उन्हें इस बात का कष्ट होता है कि आज के कलाकार व्यापारी ज़्यादा हो गए हैं। बउवा देवी में कला क्षमता का उद्वेग इस कोटि का नहीं है। उनकी इस कला कि व्यथा फूटती रहती है। इन्हें अफ़सोस है कि मिथिला पेंटिंग का कोई म्युजियम देश में नहीं है। यही इनका बड़ा सपना है। विदेश इन्हें नहीं भाता, स्वदेश ही सबकुछ है। जितवारपुर सबकुछ है, लोक से कला कि संवेदना मिलती है। वे समय निकालकर जितवारपुर आती हैं। उनकी दूसरी व्यथा है कि मिथिला पेंटिंग में “मास प्रोडक्शन” बढ़ा है लेकिन उसमे दलाल वर्ग घुस गया है। कलाकारों को उनकी कला का मेहनताना नहीं मिलता। पुरस्कारों के लिए भी जोड़-तोड़ होता है। उनकी यह व्यथा अपनी जगह पर है। लेकिन जब पद्मश्री पुरस्कार बउवा देवी को मिलता है तो पुरस्कार कि गरिमा बढ़ जाती है।

उनकी कोशिश-विरासत की रक्षा

आज भी बउवा देवी में कुछ नया करने का जोश है। आज कि पीढ़ी को कुछ देने का जज़्बा। विरासत कि रक्षा। कला पीढ़ी-दर-पीढ़ी का अंग बन जाए- इनकी कोशिश है। किसी विषय को ऊंचाई पर पहुंचा देना। एक ग्रामीण संस्कारों वाली महिला इतना कुछ सोचे-समझे-करे, यह अप्रतिम है। इनकी सामान्यता ऐसी कि इन्हें देखकर कोई सोच नहीं सकता कि ये इतनी बड़ी कलाकार हैं। इन्हें पद्मश्री मिलने कि घोषणा हुई तो बहुतों ने इनके साथ सेल्फी ली। सेल्फी क्या होती है-तब ये जानती भी नहीं थीं। बिहार का नाम इन्होंने ऊँचा किया है-उसे विश्व स्तर पर पहुँचाया है। अब एक ही काम है इनका- कला को लोगों के मन से जोड़ना। किसी पुरस्कार का ख्याल नहीं रहा-वह स्वयं आया-देर सबेर आया। पुरस्कार आया तो कला को आया, लोक मानस कि विंबता को आया। ये मानती हैं कि मिथिला पेंटिंग का भविष्य बहुत उज्जवल है। यह आय का भी जरिया है। महिलाओं में इसके सीखने कि चाह होनी चाहिए। कलाकार को अवसर मुहैया कराना चाहिए।

लाभ शार्ट-कट से नहीं मिलता

वे कहती हैं कि पेंटिंग बनाती हूं तो इससे आनंद का अनुभव करती हूँ। ईश्वर की यह कृपा है। लोगों को मेरी कला पसंद आ रही है तो यह मिथिला कला की शान और अवदान है। माध्यम होता है व्यक्ति। लाभ शार्ट कट से नहीं मिलता। महत्वपूर्ण, दीर्घायु होने के लिए कला साधना मांगती है। एक आदर्श होना चाहिए की हम बड़ों का सम्मान करें और छोटों को सहयोग दे। इसी से कला की जड़ें जमती है। परंपरा भी इसी से बचती है।

जड़ों को न भूलें

माँ चंद्रकला देवी की छाया में ही इन्होंने पेंटिंग की शुरुआत की थी। इनके निर्माण में उनका योगदान अन्यतम है। शादी के बाद जब ये जितवारपुर आई तब इनकी कला को और विस्तार मिला। 2015 में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जब जर्मनी यात्रा पर गए थे तो बर्लिन के मेयर स्टीफन शोस्तक ने उन्हें बउवा देवी की पेंटिंग उपहार में दी। यही उनकी सार्थकता है। कलाकार को दूसरा कुछ भी नहीं चाहिए। उनकी पहली पेंटिंग डेढ़ रू में बिकी थी- आज लाखों में बिकती है- करोड़ों आँखों द्वारा सराही जाती है। यही बउवा देवी की उपलब्धि है। ईमानदारी और निष्ठा होनी चाहिए कला के प्रति। पैसे के पीछे भाग रही है दुनिया तो अपने जड़ों को भूल रही है। इसे बचाना है। कलाकार का जीवन सबसे पवित्र और महिमामय है। बउवा देवी के व्यक्तित्व से हमें यही सीख मिलती है।

Pride of Mithila Painting
BAUA DEVI
Baua Devi is a Mithila painting artist from Jitwarpur village of Madhubani District in Bihar. Mithila painting is an ancient folk art that originated in the region. It is recognized as a series of complex geometric and linear patterns traced on the walls of a house’s inner chambers. It was later transferred to handmade paper and canvases.[1] Baua Devi won the National Award in 1984 and received the Padma Shri in 2017. (WIKIPEDIA)