मिथिला पेंटिंग की शान हैं बउवा देवी (Baua Devi)
मिथिला पेंटिंग की शान हैं बउवा देवी
बउवा देवी (Baua Devi) का जन्म गुलाम भारत में मधुबनी के सिमरी (राजनगर) गांव में 25 दिसंबर, 1942 को हुआ था।
मिथिला पेंटिंग के प्रति बउवा देवी (Baua Devi) का प्रेम और पागलपन इस कदर था की पांचवी कक्षा में ही पढाई छोड़कर इसी में रम गई। 12 साल की उम्र में शादी के बाद ये जितवारपुर आई। परंपरा से चित्रित मिथिला पेंटिंग दादी और माँ से होकर इनके खून में था। उस समय तक शादी एवं पर्व-त्योहारों के अवसर पर मिथिला पेंटिंग घर की दीवारों पर उकेरी जाती थी।
बिहार की संस्कृति मिथिला पेंटिंग
बिहार के मधुबनी (मिथिला) पेंटिंग की चर्चा आज राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है। यह कला एक बड़ा व्यवसाय बन चुकी है। इससे जुड़े कलाकार काफी पैसा भी कमा रहे हैं। मिथिला पेंटिंग को यदि उसकी वर्तमान सम्पन्नता की दृष्टि से देखें तो यह उल्लेखनीय सफलता है और सफलता से बड़ा कोई यश नहीं है। लेकिन उसका एक नकारात्मक पक्ष भी है। आज मिथिला पेंटिंग के कलात्मक प्रभाव को लेकर सवाल उठ रहे हैं। मिथिला पेंटिंग की अपनी विद्याएं और परम्पराएं रही हैं। लेकिन आज मिथिला पेंटिंग के कलाकार जो कुछ चित्रित कर रहे हैं, वह कितना पारम्परिक और प्रासंगिक है? कला समालोचक मिथिला पेंटिंग में अंधानुकरण करने की प्रवृत्ति को लेकर भी चिंतित हैं। सचमुच, मिथिला पेंटिंग में आज वैसे कलाकारों की संख्या घटती जा रही है, जो बाज़ार के हर तरह के दबावों के बावजूद अपनी कला के प्रति निश्छल,समर्पित एवं निष्ठा-वान हों। यहीं पर बउवा देवी जैसी कलाकारों का महत्व दृष्टिगोचर होता है।
बउवा देवी का साधारण व्यक्तित्व और उनकी उपलब्धियां
भोली-भाली सूरत और ग्रामीण वेशभूषा वाली बउवा देवी से जो भी व्यक्ति मिला है, वह उनके आचरण,कुशलता और व्यक्तित्व की परिपूर्णता से निश्चय ही प्रभावित हुआ है। यहीं गुण उनकी मिथिला पेंटिंग में भी परिलक्षित होते हैं। 75 वर्ष की उम्र में भी वे कल्पना के साथ सृजन करती हैं, न की अनुकरण। उनकी प्रत्येक कृति विषय को मुखरित कर देती है और मानवीय एवं प्रेरणास्पद होती है। सहसा विश्वास नहीं होता की यह महिला 70 के दशक में पेरिस हो आई है, फ्रांस के चर्चित कला समीक्षक बिको की पुस्तक “द वुमन पेंटर्स ऑफ़ मिथिला” की पात्र हैं। 11 बार इनकी जापान यात्रा हो चुकी है, जर्मनी, लंदन और मॉरीशस से हो आई हैं- अपनी कला साधना को लेकर। पेरिस, बार्सिलोना,स्पेन की कला प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया है। इन्हें 1986 का राष्ट्रीय पुरस्कार और 2017 में पद्मश्री मिल चुका है। केवल इसी बल पर कि इनकी पेंटिंग की शैली मिथिला पेंटिंग के अन्य कलाकारों से बिलकुल भिन्न है। अब बउवा देवी सूर्यग्रहण,अर्द्धनारीश्वर, अमेरिका पर 9 \11 के विस्फोटक हमलों की ज़मीन को कैनवास पर उतार रही हैं। मानवी दुनिया को विनाश की नाग-कन्यायों से कैसे बचाया जाए, निर्माण और विनाश के कालप्रसूत जीवन-चक्र को कैसे आगे की गति पुनरोत्पादन से जोड़ा जाए- चित्रित कर रही हैं। यह सब ‘कोहबर’ से निकली मिथिला पेंटिंग का व्यापक संक्रांति से मुक्ति का बड़ा फलक है। आज भी सक्रिय हैं बउवा देवी। वे मिथिला पेंटिंग के अंतिम पंचम स्वर की धात्री देवी-शक्ति हैं। भरनी शैली में बनाये इनकी ज्यामितीय आकृतियों में ढले रंगों में मानव का अंतिम संगीत फुट पड़ा है। इन्होने सिद्ध किया है की कला की अंतिम परिणीति मानवता के संगीत में ही होती है।मधुबनी से 6 -7 मील की दूरी पर स्थित जितवारपुर गांव आज मिथिला पेंटिंग का गढ़ बन चुका है। यहाँ कमोवेश हर घर में लोग यह पेंटिंग आज बना रहे हैं। इस तरह मिथिला के सामंती समाज में यह स्त्रियों की आज़ादी और सामाजिक न्याय के सशक्तिकरण, समरसता का नया रास्ता खुल गया है।
कैसे की बउवा देवी ने सफर की शुरुआत
1966-67 के अकाल के समय अखिल भारतीय हस्तकला बोर्ड की तरफ से डिज़ाइनर श्री भास्कर कुलकर्णी को इस भिती चित्र को व्यावसायिक आयाम देने हेतु भेजा गया था। भास्कर कुलकर्णी जितवारपुर आए और इन्होने महिलाओं को कागज़ पर चित्रों को उकेरने के लिए प्रेरित किया। इसे आमदनी का स्त्रोत बनाया। इसी क्रम में बउवा देवी ने भिती चित्रों को कागज़ पर बनाना शुरू कर दिया। आज इसी रूप में यह लोककला बउवा देवी के माध्यम से कागज़ और कपडे पर तो हैं ही- स्टेशनों,संग्रहालयों की दीवारों पर वृहदाकार रूप में भी आकर्षण का केंद्र हैं।
70 के दशक में भास्कर कुलकर्णी ने बउवा देवी से 14 रू में कागज़ की तीन पेंटिंग को ख़रीदा था, जिसमें शंकर, काली, दुर्गा को उकेरा गया था। बउवा देवी ने इसके बाद अन्य धार्मिक मिथकों, लोक-प्रतीकों को समाहित किया। अंत में उतर आई ‘नाग नागिन’ की पेंटिंग पर ,जो इनके व्यक्तित्व और कलाधर्मिता से जुड़ गया है।नाग देवता इनके कुल देवता भी थे। इनका नाम है ‘कालिका-विषहारा’। बासुकी नाग की कहानी को बउवा आज भी चित्रित करती हैं। लौकिक ज्ञान और विश्वास ही आज तक कला के उद्गम रहे हैं। बउवा देवी ने नाग को विश्व मंच पर प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। ये स्वयं आतंक से, व्यावसायिकता से, भौतिकता से मुक्ति के लिए विश्व की नाग-कन्या बन गई हैं, जिसका एक छोर विनाश के खात्मे का है तो दूसरा छोर नव सृजन का। इस तरह एक लोक गाथा बन गई हैं। इन्होंने वैयक्तिक और पौराणिक संदर्भों से विषय को उठाकर, उसे अपनी कला में मिलाकर अपने सम्पूर्ण जीवन को एक कला-दर्शन में बदल लिया है। उसके कई आयाम हैं, जो अनुसंधान का विषय है।
उनकी रचनाएँ
मिथिला कला इनके प्राणों में बसती है। इनकी अधिकांश रचनाएँ प्राकृतिक और लौकिक है- कल्पना का आधार उसमे शामिल है। कालिया मर्दन करते कृष्ण, राम-सीता विवाह यथार्थ और कल्पना का मेल है तो नाग नागिन कला की स्मृति, कहानियों के मर्म का उदघाटन। समय के साथ बदलाव की चित्रकारी है अमेरिका के वर्ल्ड सेन्टर पर हमले का चित्र। आसमान में विशालकाय नाग- फैलाये हुए फन- बेदनामयी नज़रें-दुख, अंधकार, रक्तपात। इस दुख-दर्द को बउवा जैसी कलाकार ही समझ सकती हैं। तभी तो बउवा देवी का जितवारपुर देश का एकमात्र ऐसा गाँव बन चुका है, जहाँ की तीन महिलाओं को पद्मश्री मिल चुका है। मिथिला पेंटिंग बउवा देवी का यशभाग लिख रही है।
दिल्ली की वो प्रदर्शनी
अतीत के पन्नों को पलटते हुए बउवा देवी कहती हैं- “जब मैं 15-16 वर्ष की थी, तभी सीता देवी,महासुंदरी देवी, जगदम्बा देवी और यमुना देवी के साथ दिल्ली स्थित प्रगति मैदान गई थी और एक माह तक वहाँ रहकर अपनी कला का प्रदर्शन किया था। उसके एवज में हमें प्रतिदिन 20 रूपया मानदेय के रूप में मिलता था, जो उस समय के हिसाब से बहुत ज़्यादा था। इसकी भनक चोरों को लग गई थी और एक रात वे चोरी की नीयत से हमारे कमरे में प्रवेश कर गए थे। लेकिन हो-हल्ला हो जाने के कारण उन्हें भागना पड़ा था। तब मैं बहुत डर गई थी और कई रात ठीक से नींद नहीं आई थी।”
उनकी व्यथाएँ
आजकल वे बेटे-बेटियों के साथ ज़्यादातर दिल्ली में रहती हैं लेकिन जितवारपुर गाँव इनसे छूटा नहीं है। उन्हें इस बात का कष्ट होता है कि आज के कलाकार व्यापारी ज़्यादा हो गए हैं। बउवा देवी में कला क्षमता का उद्वेग इस कोटि का नहीं है। उनकी इस कला कि व्यथा फूटती रहती है। इन्हें अफ़सोस है कि मिथिला पेंटिंग का कोई म्युजियम देश में नहीं है। यही इनका बड़ा सपना है। विदेश इन्हें नहीं भाता, स्वदेश ही सबकुछ है। जितवारपुर सबकुछ है, लोक से कला कि संवेदना मिलती है। वे समय निकालकर जितवारपुर आती हैं। उनकी दूसरी व्यथा है कि मिथिला पेंटिंग में “मास प्रोडक्शन” बढ़ा है लेकिन उसमे दलाल वर्ग घुस गया है। कलाकारों को उनकी कला का मेहनताना नहीं मिलता। पुरस्कारों के लिए भी जोड़-तोड़ होता है। उनकी यह व्यथा अपनी जगह पर है। लेकिन जब पद्मश्री पुरस्कार बउवा देवी को मिलता है तो पुरस्कार कि गरिमा बढ़ जाती है।
उनकी कोशिश-विरासत की रक्षा
आज भी बउवा देवी में कुछ नया करने का जोश है। आज कि पीढ़ी को कुछ देने का जज़्बा। विरासत कि रक्षा। कला पीढ़ी-दर-पीढ़ी का अंग बन जाए- इनकी कोशिश है। किसी विषय को ऊंचाई पर पहुंचा देना। एक ग्रामीण संस्कारों वाली महिला इतना कुछ सोचे-समझे-करे, यह अप्रतिम है। इनकी सामान्यता ऐसी कि इन्हें देखकर कोई सोच नहीं सकता कि ये इतनी बड़ी कलाकार हैं। इन्हें पद्मश्री मिलने कि घोषणा हुई तो बहुतों ने इनके साथ सेल्फी ली। सेल्फी क्या होती है-तब ये जानती भी नहीं थीं। बिहार का नाम इन्होंने ऊँचा किया है-उसे विश्व स्तर पर पहुँचाया है। अब एक ही काम है इनका- कला को लोगों के मन से जोड़ना। किसी पुरस्कार का ख्याल नहीं रहा-वह स्वयं आया-देर सबेर आया। पुरस्कार आया तो कला को आया, लोक मानस कि विंबता को आया। ये मानती हैं कि मिथिला पेंटिंग का भविष्य बहुत उज्जवल है। यह आय का भी जरिया है। महिलाओं में इसके सीखने कि चाह होनी चाहिए। कलाकार को अवसर मुहैया कराना चाहिए।
लाभ शार्ट-कट से नहीं मिलता
वे कहती हैं कि पेंटिंग बनाती हूं तो इससे आनंद का अनुभव करती हूँ। ईश्वर की यह कृपा है। लोगों को मेरी कला पसंद आ रही है तो यह मिथिला कला की शान और अवदान है। माध्यम होता है व्यक्ति। लाभ शार्ट कट से नहीं मिलता। महत्वपूर्ण, दीर्घायु होने के लिए कला साधना मांगती है। एक आदर्श होना चाहिए की हम बड़ों का सम्मान करें और छोटों को सहयोग दे। इसी से कला की जड़ें जमती है। परंपरा भी इसी से बचती है।
जड़ों को न भूलें
माँ चंद्रकला देवी की छाया में ही इन्होंने पेंटिंग की शुरुआत की थी। इनके निर्माण में उनका योगदान अन्यतम है। शादी के बाद जब ये जितवारपुर आई तब इनकी कला को और विस्तार मिला। 2015 में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जब जर्मनी यात्रा पर गए थे तो बर्लिन के मेयर स्टीफन शोस्तक ने उन्हें बउवा देवी की पेंटिंग उपहार में दी। यही उनकी सार्थकता है। कलाकार को दूसरा कुछ भी नहीं चाहिए। उनकी पहली पेंटिंग डेढ़ रू में बिकी थी- आज लाखों में बिकती है- करोड़ों आँखों द्वारा सराही जाती है। यही बउवा देवी की उपलब्धि है। ईमानदारी और निष्ठा होनी चाहिए कला के प्रति। पैसे के पीछे भाग रही है दुनिया तो अपने जड़ों को भूल रही है। इसे बचाना है। कलाकार का जीवन सबसे पवित्र और महिमामय है। बउवा देवी के व्यक्तित्व से हमें यही सीख मिलती है।
Baua Devi is a Mithila painting artist from Jitwarpur village of Madhubani District in Bihar. Mithila painting is an ancient folk art that originated in the region. It is recognized as a series of complex geometric and linear patterns traced on the walls of a house’s inner chambers. It was later transferred to handmade paper and canvases.[1] Baua Devi won the National Award in 1984 and received the Padma Shri in 2017. (WIKIPEDIA)
मिथिला पेंटिंग की शान हैं बउवा देवी
बिहार की संस्कृति मिथिला पेंटिंग
बिहार के मधुबनी (मिथिला) पेंटिंग की चर्चा आज राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है। यह कला एक बड़ा व्यवसाय बन चुकी है। इससे जुड़े कलाकार काफी पैसा भी कमा रहे हैं। मिथिला पेंटिंग को यदि उसकी वर्तमान सम्पन्नता की दृष्टि से देखें तो यह उल्लेखनीय सफलता है और सफलता से बड़ा कोई यश नहीं है। लेकिन उसका एक नकारात्मक पक्ष भी है। आज मिथिला पेंटिंग के कलात्मक प्रभाव को लेकर सवाल उठ रहे हैं। मिथिला पेंटिंग की अपनी विद्याएं और परम्पराएं रही हैं। लेकिन आज मिथिला पेंटिंग के कलाकार जो कुछ चित्रित कर रहे हैं, वह कितना पारम्परिक और प्रासंगिक है? कला समालोचक मिथिला पेंटिंग में अंधानुकरण करने की प्रवृत्ति को लेकर भी चिंतित हैं। सचमुच, मिथिला पेंटिंग में आज वैसे कलाकारों की संख्या घटती जा रही है, जो बाज़ार के हर तरह के दबावों के बावजूद अपनी कला के प्रति निश्छल,समर्पित एवं निष्ठा-वान हों। यहीं पर बउवा देवी जैसी कलाकारों का महत्व दृष्टिगोचर होता है।बउवा देवी का साधारण व्यक्तित्व और उनकी उपलब्धियां
भोली-भाली सूरत और ग्रामीण वेशभूषा वाली बउवा देवी से जो भी व्यक्ति मिला है, वह उनके आचरण,कुशलता और व्यक्तित्व की परिपूर्णता से निश्चय ही प्रभावित हुआ है। यहीं गुण उनकी मिथिला पेंटिंग में भी परिलक्षित होते हैं। 75 वर्ष की उम्र में भी वे कल्पना के साथ सृजन करती हैं, न की अनुकरण। उनकी प्रत्येक कृति विषय को मुखरित कर देती है और मानवीय एवं प्रेरणास्पद होती है। सहसा विश्वास नहीं होता की यह महिला 70 के दशक में पेरिस हो आई है, फ्रांस के चर्चित कला समीक्षक बिको की पुस्तक “द वुमन पेंटर्स ऑफ़ मिथिला” की पात्र हैं। 11 बार इनकी जापान यात्रा हो चुकी है, जर्मनी, लंदन और मॉरीशस से हो आई हैं- अपनी कला साधना को लेकर। पेरिस, बार्सिलोना,स्पेन की कला प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया है। इन्हें 1986 का राष्ट्रीय पुरस्कार और 2017 में पद्मश्री मिल चुका है। केवल इसी बल पर कि इनकी पेंटिंग की शैली मिथिला पेंटिंग के अन्य कलाकारों से बिलकुल भिन्न है। अब बउवा देवी सूर्यग्रहण,अर्द्धनारीश्वर, अमेरिका पर 9 \11 के विस्फोटक हमलों की ज़मीन को कैनवास पर उतार रही हैं। मानवी दुनिया को विनाश की नाग-कन्यायों से कैसे बचाया जाए, निर्माण और विनाश के कालप्रसूत जीवन-चक्र को कैसे आगे की गति पुनरोत्पादन से जोड़ा जाए- चित्रित कर रही हैं। यह सब ‘कोहबर’ से निकली मिथिला पेंटिंग का व्यापक संक्रांति से मुक्ति का बड़ा फलक है। आज भी सक्रिय हैं बउवा देवी। वे मिथिला पेंटिंग के अंतिम पंचम स्वर की धात्री देवी-शक्ति हैं। भरनी शैली में बनाये इनकी ज्यामितीय आकृतियों में ढले रंगों में मानव का अंतिम संगीत फुट पड़ा है। इन्होने सिद्ध किया है की कला की अंतिम परिणीति मानवता के संगीत में ही होती है।मधुबनी से 6 -7 मील की दूरी पर स्थित जितवारपुर गांव आज मिथिला पेंटिंग का गढ़ बन चुका है। यहाँ कमोवेश हर घर में लोग यह पेंटिंग आज बना रहे हैं। इस तरह मिथिला के सामंती समाज में यह स्त्रियों की आज़ादी और सामाजिक न्याय के सशक्तिकरण, समरसता का नया रास्ता खुल गया है।कैसे की बउवा देवी ने सफर की शुरुआत
1966-67 के अकाल के समय अखिल भारतीय हस्तकला बोर्ड की तरफ से डिज़ाइनर श्री भास्कर कुलकर्णी को इस भिती चित्र को व्यावसायिक आयाम देने हेतु भेजा गया था। भास्कर कुलकर्णी जितवारपुर आए और इन्होने महिलाओं को कागज़ पर चित्रों को उकेरने के लिए प्रेरित किया। इसे आमदनी का स्त्रोत बनाया। इसी क्रम में बउवा देवी ने भिती चित्रों को कागज़ पर बनाना शुरू कर दिया। आज इसी रूप में यह लोककला बउवा देवी के माध्यम से कागज़ और कपडे पर तो हैं ही- स्टेशनों,संग्रहालयों की दीवारों पर वृहदाकार रूप में भी आकर्षण का केंद्र हैं। 70 के दशक में भास्कर कुलकर्णी ने बउवा देवी से 14 रू में कागज़ की तीन पेंटिंग को ख़रीदा था, जिसमें शंकर, काली, दुर्गा को उकेरा गया था। बउवा देवी ने इसके बाद अन्य धार्मिक मिथकों, लोक-प्रतीकों को समाहित किया। अंत में उतर आई ‘नाग नागिन’ की पेंटिंग पर ,जो इनके व्यक्तित्व और कलाधर्मिता से जुड़ गया है।नाग देवता इनके कुल देवता भी थे। इनका नाम है ‘कालिका-विषहारा’। बासुकी नाग की कहानी को बउवा आज भी चित्रित करती हैं। लौकिक ज्ञान और विश्वास ही आज तक कला के उद्गम रहे हैं। बउवा देवी ने नाग को विश्व मंच पर प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। ये स्वयं आतंक से, व्यावसायिकता से, भौतिकता से मुक्ति के लिए विश्व की नाग-कन्या बन गई हैं, जिसका एक छोर विनाश के खात्मे का है तो दूसरा छोर नव सृजन का। इस तरह एक लोक गाथा बन गई हैं। इन्होंने वैयक्तिक और पौराणिक संदर्भों से विषय को उठाकर, उसे अपनी कला में मिलाकर अपने सम्पूर्ण जीवन को एक कला-दर्शन में बदल लिया है। उसके कई आयाम हैं, जो अनुसंधान का विषय है।उनकी रचनाएँ
मिथिला कला इनके प्राणों में बसती है। इनकी अधिकांश रचनाएँ प्राकृतिक और लौकिक है- कल्पना का आधार उसमे शामिल है। कालिया मर्दन करते कृष्ण, राम-सीता विवाह यथार्थ और कल्पना का मेल है तो नाग नागिन कला की स्मृति, कहानियों के मर्म का उदघाटन। समय के साथ बदलाव की चित्रकारी है अमेरिका के वर्ल्ड सेन्टर पर हमले का चित्र। आसमान में विशालकाय नाग- फैलाये हुए फन- बेदनामयी नज़रें-दुख, अंधकार, रक्तपात। इस दुख-दर्द को बउवा जैसी कलाकार ही समझ सकती हैं। तभी तो बउवा देवी का जितवारपुर देश का एकमात्र ऐसा गाँव बन चुका है, जहाँ की तीन महिलाओं को पद्मश्री मिल चुका है। मिथिला पेंटिंग बउवा देवी का यशभाग लिख रही है।दिल्ली की वो प्रदर्शनी
अतीत के पन्नों को पलटते हुए बउवा देवी कहती हैं- “जब मैं 15-16 वर्ष की थी, तभी सीता देवी,महासुंदरी देवी, जगदम्बा देवी और यमुना देवी के साथ दिल्ली स्थित प्रगति मैदान गई थी और एक माह तक वहाँ रहकर अपनी कला का प्रदर्शन किया था। उसके एवज में हमें प्रतिदिन 20 रूपया मानदेय के रूप में मिलता था, जो उस समय के हिसाब से बहुत ज़्यादा था। इसकी भनक चोरों को लग गई थी और एक रात वे चोरी की नीयत से हमारे कमरे में प्रवेश कर गए थे। लेकिन हो-हल्ला हो जाने के कारण उन्हें भागना पड़ा था। तब मैं बहुत डर गई थी और कई रात ठीक से नींद नहीं आई थी।”उनकी व्यथाएँ
आजकल वे बेटे-बेटियों के साथ ज़्यादातर दिल्ली में रहती हैं लेकिन जितवारपुर गाँव इनसे छूटा नहीं है। उन्हें इस बात का कष्ट होता है कि आज के कलाकार व्यापारी ज़्यादा हो गए हैं। बउवा देवी में कला क्षमता का उद्वेग इस कोटि का नहीं है। उनकी इस कला कि व्यथा फूटती रहती है। इन्हें अफ़सोस है कि मिथिला पेंटिंग का कोई म्युजियम देश में नहीं है। यही इनका बड़ा सपना है। विदेश इन्हें नहीं भाता, स्वदेश ही सबकुछ है। जितवारपुर सबकुछ है, लोक से कला कि संवेदना मिलती है। वे समय निकालकर जितवारपुर आती हैं। उनकी दूसरी व्यथा है कि मिथिला पेंटिंग में “मास प्रोडक्शन” बढ़ा है लेकिन उसमे दलाल वर्ग घुस गया है। कलाकारों को उनकी कला का मेहनताना नहीं मिलता। पुरस्कारों के लिए भी जोड़-तोड़ होता है। उनकी यह व्यथा अपनी जगह पर है। लेकिन जब पद्मश्री पुरस्कार बउवा देवी को मिलता है तो पुरस्कार कि गरिमा बढ़ जाती है।उनकी कोशिश-विरासत की रक्षा
आज भी बउवा देवी में कुछ नया करने का जोश है। आज कि पीढ़ी को कुछ देने का जज़्बा। विरासत कि रक्षा। कला पीढ़ी-दर-पीढ़ी का अंग बन जाए- इनकी कोशिश है। किसी विषय को ऊंचाई पर पहुंचा देना। एक ग्रामीण संस्कारों वाली महिला इतना कुछ सोचे-समझे-करे, यह अप्रतिम है। इनकी सामान्यता ऐसी कि इन्हें देखकर कोई सोच नहीं सकता कि ये इतनी बड़ी कलाकार हैं। इन्हें पद्मश्री मिलने कि घोषणा हुई तो बहुतों ने इनके साथ सेल्फी ली। सेल्फी क्या होती है-तब ये जानती भी नहीं थीं। बिहार का नाम इन्होंने ऊँचा किया है-उसे विश्व स्तर पर पहुँचाया है। अब एक ही काम है इनका- कला को लोगों के मन से जोड़ना। किसी पुरस्कार का ख्याल नहीं रहा-वह स्वयं आया-देर सबेर आया। पुरस्कार आया तो कला को आया, लोक मानस कि विंबता को आया। ये मानती हैं कि मिथिला पेंटिंग का भविष्य बहुत उज्जवल है। यह आय का भी जरिया है। महिलाओं में इसके सीखने कि चाह होनी चाहिए। कलाकार को अवसर मुहैया कराना चाहिए।लाभ शार्ट-कट से नहीं मिलता
वे कहती हैं कि पेंटिंग बनाती हूं तो इससे आनंद का अनुभव करती हूँ। ईश्वर की यह कृपा है। लोगों को मेरी कला पसंद आ रही है तो यह मिथिला कला की शान और अवदान है। माध्यम होता है व्यक्ति। लाभ शार्ट कट से नहीं मिलता। महत्वपूर्ण, दीर्घायु होने के लिए कला साधना मांगती है। एक आदर्श होना चाहिए की हम बड़ों का सम्मान करें और छोटों को सहयोग दे। इसी से कला की जड़ें जमती है। परंपरा भी इसी से बचती है।जड़ों को न भूलें
माँ चंद्रकला देवी की छाया में ही इन्होंने पेंटिंग की शुरुआत की थी। इनके निर्माण में उनका योगदान अन्यतम है। शादी के बाद जब ये जितवारपुर आई तब इनकी कला को और विस्तार मिला। 2015 में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जब जर्मनी यात्रा पर गए थे तो बर्लिन के मेयर स्टीफन शोस्तक ने उन्हें बउवा देवी की पेंटिंग उपहार में दी। यही उनकी सार्थकता है। कलाकार को दूसरा कुछ भी नहीं चाहिए। उनकी पहली पेंटिंग डेढ़ रू में बिकी थी- आज लाखों में बिकती है- करोड़ों आँखों द्वारा सराही जाती है। यही बउवा देवी की उपलब्धि है। ईमानदारी और निष्ठा होनी चाहिए कला के प्रति। पैसे के पीछे भाग रही है दुनिया तो अपने जड़ों को भूल रही है। इसे बचाना है। कलाकार का जीवन सबसे पवित्र और महिमामय है। बउवा देवी के व्यक्तित्व से हमें यही सीख मिलती है।
Baua Devi is a Mithila painting artist from Jitwarpur village of Madhubani District in Bihar. Mithila painting is an ancient folk art that originated in the region. It is recognized as a series of complex geometric and linear patterns traced on the walls of a house’s inner chambers. It was later transferred to handmade paper and canvases.[1] Baua Devi won the National Award in 1984 and received the Padma Shri in 2017. (WIKIPEDIA)