संघर्ष की मिसाल हैं दुलारी देवी (dulari devi)
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके लिए शस्य श्यामला धरती पालने का काम करती है, गांव की पगडंडियाँ जिनको ऊँगली पकड़कर चलना सिखाती है, पेड़-पौधे, नदी-तालाब और पशु-पक्षी चीजें निर्भय होकर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं | अनुभव के विश्वविद्यालय में ऐसे लोग जो डिग्री हासिल करते हैं, उनके समक्ष विश्वविद्यालय की ऊंची से ऊंची डिग्री भी फीकी पड़ जाती है | ऐसे ही लोगों में दुलारी देवी भी एक हैं, जिन्होंने तमाम प्रतिकूलताओ के बावजूद लगन परिश्रम और संकल्प शक्ति के बल पर मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में एक विशिष्ट मुकाम हासिल किया है | वे हमारे बीच मिथिला पेंटिंग के शीर्षस्थ कलाकारों की पंक्ति में श्रद्धा एवं आदर के पात्र हैं |
दुलारी देवी ( Dulari Devi ) का जन्म बिहार के मधुबनी जिला अंतर्गत रॉटी ग्राम के एक मछुआरा परिवार में २७ दिसंबर १९६७ को हुआ था | दुलारी के पिता मुसहर मुखिया और भाई परीक्षण मुखिया मछली पकड़ने का परंपरागत काम करते थे | जबकि मां धनेश्वरी देवी दूसरे के घरों में खेत खलियान में मजदूरी करती थी |होश सँभालते ही दुलारी को दोहरी जिम्मेदारी निभानी पड़ी | कभी पिता और भाई के साथ मछलियां पकड़ने जाती तो कभी माँ के साथ दूसरे के घरों और खेतों में मजदूरी करती | फिर भी शायद ही किसी दिन भरपेट भोजन हो पता था | दूसरे दिन क्या खाएंगे, इसी चिंता में रात गुजरती थी | उन दिनों के बारे में दुलारी कहती हैं, “बचपन का दिन बड़ा हे मुस्किलो भरा था | फूस का घर था | सुबह और शाम में माँ के साथ लोगो के घरो में झाड़ू-पोछा और दिन में खेतो में मजदूरी किया करती थी | धान कटनी के दिनों में दूसरे के घर धान कूटने भी जाना पड़ता था | तब २० किलो धान कूटने पर आधा किलो धान मजदूरी के रूप में मिलता था | लेकिन इतने कठिन परिश्रम के बाउजूद भी कभी-कभार भूखे पेट ही सोना पड़ता था |”
जैसे की उन दिनों प्रचलन था, ११२ वर्ष की उम्र में ही दुलारी की शादी मधुबनी जिले के बेनीपट्टी प्रखंड के बलाइन कुसमौल गाँव में हो गई | लेकिन दुलारी का दामपत्ये जीवन सुखद नहीं रहा | पति से अनबन चलता रहा | उनकी ६ माह की पुत्री भी अचानक चल बसी | तब दुलारी मायके लौट आई और फिर वही की होकर रह गई | मायके में मिथला पेंटिंग की सुप्रसिद्ध कलाकार महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी के यहाँ दुलारी को ६ रु महीना पर झाड़ू-पोछा का काम मिला | वह आँगन-बरामदा झाड़ू से रगड़-रगड़ के चमकाती | चूल्हे-चौके से लेकर उनके घर का हर छोटा-बड़ा काम दुलारी करती | काम के बाद जब समय मिलता, तब महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी को पेंटिंग बनाते ध्यान से देखा करती | उन्हें देख दुलारी के मन में भी पेंटिंग बनाने की लालसा जगी | लकिन दिनों पिछड़ी जातियों में मिथला पेंटिंग बनाने का रिवाज नहीं था |इसलिए लोकलाज के डर से वह अपने मन की बात कह नहीं पाती थी | कागज और कुची खरीदने के लिए भी दुलारी के पास पैसे नहीं थे | पढ़ी-लिखी भी नहीं थी | कभीं कलम और पेंसिल नहीं पकड़ा था | लेकिन उसमे मिथिला पेंटिंग को जानने-समझने की उददाम उत्सुकता थी | इसलिए तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद उन्होंने मिथला पेंटिंग सीखने का निर्णय लिया | शाम में घर लौटने के बाद अपनी जमीं को पानी से गिला कर लकड़ी के टुकड़े से पेंटिंग बनती | यह कर्म कई महीनो तक चलता रहा |
संयोगवश, उन्ही दिनों भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय द्वारा महासुंदरी के आवास पर मिथिला पेंटिंग में ६ माह का प्रशिक्षण शुरू किया गया | महासुंदरी देवी की पहल से दुलारी को भी प्रशिक्षण में शामिल कर लिया गया | उन्होंने अपने सान्निध्य में दुलारी को सीखना सुरु कर दिया | फिर तोह दुलारी की कल्पनाएं कुलचे भरने लगी | वो सोते-जागते मिथिला पेंटिंग की स्वप्निल दुनिया में गोते लगाने लगी | उसके कौशल को राह और मजिल मिलती चली गई | इस प्रशिक्षण के दौरान उसे मिथिला पेंटिंग की बारीकियों को जानने समझने का पर्याप्त अवसर मिला | दरअसल दुलारी के मन में कहीं न कहीं यह डर समाया हुआ था कि कहीं कोई यह न कहे कि छोटे और गरीब घरो से आए लोग मिथिला पेंटिंग में काबिल नहीं होते इसलिए अपने आप को साबित करने की चाहत में वह प्रशिक्षण के बाद भी घंटो पेंटिंग बनाती | घर में बिजली नहीं थी | फिर भी अंधेरे कमरे में तेल की कुप्पी की रोशनी में वह आर्थिक कठिनाइयों और तमाम परेशानियों के बीच चित्रण करती रही | दुलारी का मेहनत रंग लाया और मिथिला पेंटिंग की तत्कालीन दुनिया में भली-भांति परिचित हो गई फिर दुलारी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा |
उस समय तक उच्च जाति की महिलाएं ज्यादातर पौराणिक कथा रामायण और महाभारत तथा दलित महिलाएं राजा सहलेस से जुड़े प्रसंगों को ही अपने चित्रों में उकेरती थी | लेकिन दुलारी ने परम्परा से चले आ रहे उन चित्रों को नहीं अपनाया | उन्होंने अपने चित्रों में नए भाव के सात विषयों के चुनाव में नवीनता लाई | वह बचपन से ही प्रकृति के संग जीने की आदी थी | इसलिए ग्राम में झांकियां और मधुर स्वप्न जो उनके भीतर बचपन से संचित होते गये थे, वे उनके रंगों और रेखाओं में बिखर गये | सबसे पहले उन्होंने मछुआरों के जीवन पर पेंटिंग बनाई | मल्लाह जाति के लोग, उनके संस्कार और उनके उत्सवों को अपना विषय बनाया | फिर खेतों में काम करते किसानों और मजदूरों का चित्रण किया बाढ़-सुखाड़ के दौरान गरीबों की तकलीफों और दुखड़ो को चित्रभाषा दी | इस तरह घरेलू दुख दर्द की अबूझ समझ और प्रकृति से आत्मीय लगाव के चलते तालाब, गवांई-गाँव और सैम-सामयिक विषयों का चित्र दुलारी ने एक नया आकर्षण पैदा कर दिया | मिथिला चित्रकला के कलाकारों की दुलारी देवी की एक अलग ही पहचान बनती गई |
दुलारी देवी ( Dulari Devi ) को मिथिला पेंटिंग की कचनी शैली (रेखा चित्र) में महारथ हासिल है | उनकी कचनी शैली के चित्रों की आपने कुछ विशेष खूबिया हैं | उनके चित्रों की रेखाएं और अपने ढंग की होती है और रंग संयोजन बहुत ही उच्च कोटि का होता है | पतली लकीरों से चित्रों को आकार देकर रंगो का जिस कुशलता से वह सम्मिश्रण करती हैं, वह सर्वथा मौलिक होता है | उनके चित्रों में नए भावों के साथ विषयों के चुनाव में भी नवीनता है | उन्होंने ऐसे विषय चुने, जो रंग और ब्रश के योग से एकदम सजीव हो उठे है | इसलिए उनके चित्रभाव और सौंदर्य की दृष्टि से सभी के मन में को भाते हैं | परिवर्तित प्रस्थितियो में समन्वय और सामंजस्य स्थापित कर वास्तविकता को प्रकट करना दुलारी देवी के चित्रण के विशेषता है | इनके चित्रण के खूबी सर्वसामान्य और रोजमर्रा की जिंदगी में नित्य नजरों के सामने से गुजरने वाले नजारे हैं | ससामान्यता ही दुलारी देवी के चित्र की असामानता है | उनके चित्र में गरीबी, प्रेम और समानता की सुंदर अभिव्यक्ति देखने को मिलती है | बाजार की मांग पर उन्होंने जहां एक और परंपरा से चले आ रहे रामायण और महाभारत से जुड़े प्रसंगों के चित्र बनाए है, वहीं दूसरी ओर नदी, तलाब, खेत-बधार और दूर-दूर तक फैले गांव जैसे ग्राम वातावरण के चित्रों को भी प्रस्तुत किया है | क्रिकेट जन-प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार, पोलियो और नशाखोरी जैसे सम-सामयिक विषयों पर बनाई गई उनकी पेंटिंग ने खूब वाहवाही बटोरी है | यह उनकी कला के सर्वोत्कृष्ट रूप कहे जाते हैं |
ललित कला अकादमी से वर्ष 1999 में मिले सम्मान और उद्योग विभाग से वर्ष 2012-13 में बिहार सरकार का प्रतिष्ठित राज्य पुरस्कार मिलने के बाद दुलारी देवी का उत्साह और बड़ा | देश के दूसरे राज्यों से भी उन्हें बुलावा आने लगा | कला माध्यम नामक संस्था के माध्यम से बेंगलुरु के विभिन्न शिक्षण संस्थानों सरकारी और गैर सरकारी भवनों की दीवारों पर 5 साल तक चित्रण किया | फिर मद्रास, केरल, हरियाणा, चेन्नई और कोलकाता में मिथिला पेंटिंग पर आयोजित कार्यशालाओं में शामिल हुई | बोध गया के नौलखा मंदिर के दीवारों पर दुलारी देवी द्वारा बनाई गयी मिथिला पेंटिंग आज भी लोगों का ध्यान आकर्षित करती है | देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं ने भी दुलारी देवी की पेंटिंग का प्रकाशन किया है | विदेशीकला प्रेमी गीता वुल्फ ने दुलारी देवी के जीवन प्रसंग पर आधारित एक सचित्र पुस्तक “फॉलोइंग माई पेंट ब्रश” का प्रकाशन किया है | इस पुस्तक में दुलारी देवी की मिथिला पेंटिंग का विस्तृत ज्ञान उद्घाटित हुआ है |मार्टिल ली कॉलेज के फ्रेंच भाषा में लिखी गई पुस्तक “मिथिला” हिंदी की कला पत्रिका सतरंगी एवं ‘मार्ग’ में भी दुलारी की जीवन गाथा और उनकी पेंटिंग का सुंदर वर्णन है | बिहार की राजधानी पटना में बिहार संग्रहालय में भी कमलेश्वरी (कमला नदी) पूजा पर दुलारी देवी द्वारा बनाई गई पेंटिंग को प्रमुखता से प्रदर्शित किया गया है | दुलारी में वात्सल्य की अतृप्त भावना प्रबल मात्रा में विद्यमान है | जिस औरत का बच्चा मात्र ६ माह में ही चल बसा हो, उसके मन में यह भावना आना स्वभाविक है | शायद यही कारण है कि बच्चों को मिथिला पेंटिंग पढ़ने में दुलारी देवी को असीम आनंद का अनुभव होता है | मिथिला आर्ट इंस्टिट्यूट और सेवा मिथिला जैसे संस्थानों के माध्यम से वह बच्चों को मिथिला पेंटिंग सिखाती रही हैं | इस क्रम में अब तक वह हजारों बच्चों को प्रशिक्षित कर चुकी हैं | प्रिशिक्षण कार्य से जो भी समय बबचता है, उसका सदुपयोग भाई के बच्चों को पढ़ाने में करती हैं | बहरहाल दुलारी देवी अब तक विविध विषयों पर लगभग 10 हजार पेंटिंग बना चुकी है | दुलारी देवी के कलाकार जीवन की मुख्य सार्थकता यह है कि वह अपने चित्रों के बल पर आत्मनिर्भर रहने वाले कलाकारों में से हैं | आज वही महीने करीब 30 से 35 हजार रूपये कमाती हैं और उनके मुताबिक यह रकम उनकी जरूरते पूरी करने के लिए पर्याप्त हैं | उनके चित्रों को देश-विदेश में पर्याप्त लोकप्रियता और ख्याति प्राप्त हो चुकी है | फिर भी वह अपनी पेंटिंग में शैलीगीत नवीनताएँ लाकर नित्य नया आकर्षण पैदा कर रही है | वह कहती भी है कि अभी थोड़ा ही हासिल किया है, अभी बहुत कुछ हासिल करना बाकी है | आज एक मुकाम है, पर मंजिल अभी शेष है |
Written By :- Ashok Kumar Sinha
Book name :- बिहार के कालजयी शिल्पकार
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके लिए शस्य श्यामला धरती पालने का काम करती है, गांव की पगडंडियाँ जिनको ऊँगली पकड़कर चलना सिखाती है, पेड़-पौधे, नदी-तालाब और पशु-पक्षी चीजें निर्भय होकर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं | अनुभव के विश्वविद्यालय में ऐसे लोग जो डिग्री हासिल करते हैं, उनके समक्ष विश्वविद्यालय की ऊंची से ऊंची डिग्री भी फीकी पड़ जाती है | ऐसे ही लोगों में दुलारी देवी भी एक हैं, जिन्होंने तमाम प्रतिकूलताओ के बावजूद लगन परिश्रम और संकल्प शक्ति के बल पर मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में एक विशिष्ट मुकाम हासिल किया है | वे हमारे बीच मिथिला पेंटिंग के शीर्षस्थ कलाकारों की पंक्ति में श्रद्धा एवं आदर के पात्र हैं |
दुलारी देवी ( Dulari Devi ) का जन्म बिहार के मधुबनी जिला अंतर्गत रॉटी ग्राम के एक मछुआरा परिवार में २७ दिसंबर १९६७ को हुआ था | दुलारी के पिता मुसहर मुखिया और भाई परीक्षण मुखिया मछली पकड़ने का परंपरागत काम करते थे | जबकि मां धनेश्वरी देवी दूसरे के घरों में खेत खलियान में मजदूरी करती थी |होश सँभालते ही दुलारी को दोहरी जिम्मेदारी निभानी पड़ी | कभी पिता और भाई के साथ मछलियां पकड़ने जाती तो कभी माँ के साथ दूसरे के घरों और खेतों में मजदूरी करती | फिर भी शायद ही किसी दिन भरपेट भोजन हो पता था | दूसरे दिन क्या खाएंगे, इसी चिंता में रात गुजरती थी | उन दिनों के बारे में दुलारी कहती हैं, “बचपन का दिन बड़ा हे मुस्किलो भरा था | फूस का घर था | सुबह और शाम में माँ के साथ लोगो के घरो में झाड़ू-पोछा और दिन में खेतो में मजदूरी किया करती थी | धान कटनी के दिनों में दूसरे के घर धान कूटने भी जाना पड़ता था | तब २० किलो धान कूटने पर आधा किलो धान मजदूरी के रूप में मिलता था | लेकिन इतने कठिन परिश्रम के बाउजूद भी कभी-कभार भूखे पेट ही सोना पड़ता था |”
जैसे की उन दिनों प्रचलन था, ११२ वर्ष की उम्र में ही दुलारी की शादी मधुबनी जिले के बेनीपट्टी प्रखंड के बलाइन कुसमौल गाँव में हो गई | लेकिन दुलारी का दामपत्ये जीवन सुखद नहीं रहा | पति से अनबन चलता रहा | उनकी ६ माह की पुत्री भी अचानक चल बसी | तब दुलारी मायके लौट आई और फिर वही की होकर रह गई | मायके में मिथला पेंटिंग की सुप्रसिद्ध कलाकार महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी के यहाँ दुलारी को ६ रु महीना पर झाड़ू-पोछा का काम मिला | वह आँगन-बरामदा झाड़ू से रगड़-रगड़ के चमकाती | चूल्हे-चौके से लेकर उनके घर का हर छोटा-बड़ा काम दुलारी करती | काम के बाद जब समय मिलता, तब महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी को पेंटिंग बनाते ध्यान से देखा करती | उन्हें देख दुलारी के मन में भी पेंटिंग बनाने की लालसा जगी | लकिन दिनों पिछड़ी जातियों में मिथला पेंटिंग बनाने का रिवाज नहीं था |इसलिए लोकलाज के डर से वह अपने मन की बात कह नहीं पाती थी | कागज और कुची खरीदने के लिए भी दुलारी के पास पैसे नहीं थे | पढ़ी-लिखी भी नहीं थी | कभीं कलम और पेंसिल नहीं पकड़ा था | लेकिन उसमे मिथिला पेंटिंग को जानने-समझने की उददाम उत्सुकता थी | इसलिए तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद उन्होंने मिथला पेंटिंग सीखने का निर्णय लिया | शाम में घर लौटने के बाद अपनी जमीं को पानी से गिला कर लकड़ी के टुकड़े से पेंटिंग बनती | यह कर्म कई महीनो तक चलता रहा |
संयोगवश, उन्ही दिनों भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय द्वारा महासुंदरी के आवास पर मिथिला पेंटिंग में ६ माह का प्रशिक्षण शुरू किया गया | महासुंदरी देवी की पहल से दुलारी को भी प्रशिक्षण में शामिल कर लिया गया | उन्होंने अपने सान्निध्य में दुलारी को सीखना सुरु कर दिया | फिर तोह दुलारी की कल्पनाएं कुलचे भरने लगी | वो सोते-जागते मिथिला पेंटिंग की स्वप्निल दुनिया में गोते लगाने लगी | उसके कौशल को राह और मजिल मिलती चली गई | इस प्रशिक्षण के दौरान उसे मिथिला पेंटिंग की बारीकियों को जानने समझने का पर्याप्त अवसर मिला | दरअसल दुलारी के मन में कहीं न कहीं यह डर समाया हुआ था कि कहीं कोई यह न कहे कि छोटे और गरीब घरो से आए लोग मिथिला पेंटिंग में काबिल नहीं होते इसलिए अपने आप को साबित करने की चाहत में वह प्रशिक्षण के बाद भी घंटो पेंटिंग बनाती | घर में बिजली नहीं थी | फिर भी अंधेरे कमरे में तेल की कुप्पी की रोशनी में वह आर्थिक कठिनाइयों और तमाम परेशानियों के बीच चित्रण करती रही | दुलारी का मेहनत रंग लाया और मिथिला पेंटिंग की तत्कालीन दुनिया में भली-भांति परिचित हो गई फिर दुलारी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा |
उस समय तक उच्च जाति की महिलाएं ज्यादातर पौराणिक कथा रामायण और महाभारत तथा दलित महिलाएं राजा सहलेस से जुड़े प्रसंगों को ही अपने चित्रों में उकेरती थी | लेकिन दुलारी ने परम्परा से चले आ रहे उन चित्रों को नहीं अपनाया | उन्होंने अपने चित्रों में नए भाव के सात विषयों के चुनाव में नवीनता लाई | वह बचपन से ही प्रकृति के संग जीने की आदी थी | इसलिए ग्राम में झांकियां और मधुर स्वप्न जो उनके भीतर बचपन से संचित होते गये थे, वे उनके रंगों और रेखाओं में बिखर गये | सबसे पहले उन्होंने मछुआरों के जीवन पर पेंटिंग बनाई | मल्लाह जाति के लोग, उनके संस्कार और उनके उत्सवों को अपना विषय बनाया | फिर खेतों में काम करते किसानों और मजदूरों का चित्रण किया बाढ़-सुखाड़ के दौरान गरीबों की तकलीफों और दुखड़ो को चित्रभाषा दी | इस तरह घरेलू दुख दर्द की अबूझ समझ और प्रकृति से आत्मीय लगाव के चलते तालाब, गवांई-गाँव और सैम-सामयिक विषयों का चित्र दुलारी ने एक नया आकर्षण पैदा कर दिया | मिथिला चित्रकला के कलाकारों की दुलारी देवी की एक अलग ही पहचान बनती गई |
दुलारी देवी ( Dulari Devi ) को मिथिला पेंटिंग की कचनी शैली (रेखा चित्र) में महारथ हासिल है | उनकी कचनी शैली के चित्रों की आपने कुछ विशेष खूबिया हैं | उनके चित्रों की रेखाएं और अपने ढंग की होती है और रंग संयोजन बहुत ही उच्च कोटि का होता है | पतली लकीरों से चित्रों को आकार देकर रंगो का जिस कुशलता से वह सम्मिश्रण करती हैं, वह सर्वथा मौलिक होता है | उनके चित्रों में नए भावों के साथ विषयों के चुनाव में भी नवीनता है | उन्होंने ऐसे विषय चुने, जो रंग और ब्रश के योग से एकदम सजीव हो उठे है | इसलिए उनके चित्रभाव और सौंदर्य की दृष्टि से सभी के मन में को भाते हैं | परिवर्तित प्रस्थितियो में समन्वय और सामंजस्य स्थापित कर वास्तविकता को प्रकट करना दुलारी देवी के चित्रण के विशेषता है | इनके चित्रण के खूबी सर्वसामान्य और रोजमर्रा की जिंदगी में नित्य नजरों के सामने से गुजरने वाले नजारे हैं | ससामान्यता ही दुलारी देवी के चित्र की असामानता है | उनके चित्र में गरीबी, प्रेम और समानता की सुंदर अभिव्यक्ति देखने को मिलती है | बाजार की मांग पर उन्होंने जहां एक और परंपरा से चले आ रहे रामायण और महाभारत से जुड़े प्रसंगों के चित्र बनाए है, वहीं दूसरी ओर नदी, तलाब, खेत-बधार और दूर-दूर तक फैले गांव जैसे ग्राम वातावरण के चित्रों को भी प्रस्तुत किया है | क्रिकेट जन-प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार, पोलियो और नशाखोरी जैसे सम-सामयिक विषयों पर बनाई गई उनकी पेंटिंग ने खूब वाहवाही बटोरी है | यह उनकी कला के सर्वोत्कृष्ट रूप कहे जाते हैं |
ललित कला अकादमी से वर्ष 1999 में मिले सम्मान और उद्योग विभाग से वर्ष 2012-13 में बिहार सरकार का प्रतिष्ठित राज्य पुरस्कार मिलने के बाद दुलारी देवी का उत्साह और बड़ा | देश के दूसरे राज्यों से भी उन्हें बुलावा आने लगा | कला माध्यम नामक संस्था के माध्यम से बेंगलुरु के विभिन्न शिक्षण संस्थानों सरकारी और गैर सरकारी भवनों की दीवारों पर 5 साल तक चित्रण किया | फिर मद्रास, केरल, हरियाणा, चेन्नई और कोलकाता में मिथिला पेंटिंग पर आयोजित कार्यशालाओं में शामिल हुई | बोध गया के नौलखा मंदिर के दीवारों पर दुलारी देवी द्वारा बनाई गयी मिथिला पेंटिंग आज भी लोगों का ध्यान आकर्षित करती है | देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं ने भी दुलारी देवी की पेंटिंग का प्रकाशन किया है | विदेशीकला प्रेमी गीता वुल्फ ने दुलारी देवी के जीवन प्रसंग पर आधारित एक सचित्र पुस्तक “फॉलोइंग माई पेंट ब्रश” का प्रकाशन किया है | इस पुस्तक में दुलारी देवी की मिथिला पेंटिंग का विस्तृत ज्ञान उद्घाटित हुआ है |मार्टिल ली कॉलेज के फ्रेंच भाषा में लिखी गई पुस्तक “मिथिला” हिंदी की कला पत्रिका सतरंगी एवं ‘मार्ग’ में भी दुलारी की जीवन गाथा और उनकी पेंटिंग का सुंदर वर्णन है | बिहार की राजधानी पटना में बिहार संग्रहालय में भी कमलेश्वरी (कमला नदी) पूजा पर दुलारी देवी द्वारा बनाई गई पेंटिंग को प्रमुखता से प्रदर्शित किया गया है | दुलारी में वात्सल्य की अतृप्त भावना प्रबल मात्रा में विद्यमान है | जिस औरत का बच्चा मात्र ६ माह में ही चल बसा हो, उसके मन में यह भावना आना स्वभाविक है | शायद यही कारण है कि बच्चों को मिथिला पेंटिंग पढ़ने में दुलारी देवी को असीम आनंद का अनुभव होता है | मिथिला आर्ट इंस्टिट्यूट और सेवा मिथिला जैसे संस्थानों के माध्यम से वह बच्चों को मिथिला पेंटिंग सिखाती रही हैं | इस क्रम में अब तक वह हजारों बच्चों को प्रशिक्षित कर चुकी हैं | प्रिशिक्षण कार्य से जो भी समय बबचता है, उसका सदुपयोग भाई के बच्चों को पढ़ाने में करती हैं | बहरहाल दुलारी देवी अब तक विविध विषयों पर लगभग 10 हजार पेंटिंग बना चुकी है | दुलारी देवी के कलाकार जीवन की मुख्य सार्थकता यह है कि वह अपने चित्रों के बल पर आत्मनिर्भर रहने वाले कलाकारों में से हैं | आज वही महीने करीब 30 से 35 हजार रूपये कमाती हैं और उनके मुताबिक यह रकम उनकी जरूरते पूरी करने के लिए पर्याप्त हैं | उनके चित्रों को देश-विदेश में पर्याप्त लोकप्रियता और ख्याति प्राप्त हो चुकी है | फिर भी वह अपनी पेंटिंग में शैलीगीत नवीनताएँ लाकर नित्य नया आकर्षण पैदा कर रही है | वह कहती भी है कि अभी थोड़ा ही हासिल किया है, अभी बहुत कुछ हासिल करना बाकी है | आज एक मुकाम है, पर मंजिल अभी शेष है |
Written By :- Ashok Kumar Sinha
Book name :- बिहार के कालजयी शिल्पकार